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रविवार, 25 मार्च 2007

रंगमंच हॆ ये!

हमेशा मुझे लगता यही हॆ,
ये दुनिया एक रंगमंच हॆ,
कठपुतलियां हॆं हम जिसमें,
नाचते किसीके इशारे पे।

ये नील गगन हॆ छत हमारा,
प्रकृति मां बनाती दृश्य सुनहरा।
हम सबको कुछ-न-कुछ करना पडता,
हमें भगवान ही नचाता हमेशा।

ये संसार उसीकी इच्छा से चलती,
हमें उम्मीद रखना हॆ खुदा की,
चूंकि, सब कुछ जानता हॆ वही,
हम तो हॆं अनजान अबोध बालक सभी।

पता नहीं किसलिए हमें वह नचाता हॆ,
जीवन में विभिन्न रंग भराता क्यों हॆ,
क्या मिलेगा, हमको नचाकर, उसे,
ये तो हमेशा एक बडा प्रश्न हॆ।

सिर्फ़ उसी के पास जवाब हॆ इसकी,
पर वह हमें बताता कभी नहीं।
कभी ये दुनिया नज़र आती सच्ची,
तो कभी, लगता हॆ कि सब हॆ झूठी।

कभी-कभी लगता ये सब स्वप्न हॆ,
शायद एक बहुत सुनहरा सपना हॆ,
जो भगवान ने मुझे दिखाया हॆ,
ताकि कुछ सीख लूं मॆं, उससे।

1 टिप्पणी:

Archikins ने कहा…

क्या आपने सोचा है कि क्या "भग्वान" भी मनुश्य का कल्पना हो सकते है... या फिर अगर हमे नचा रहे है कुच सिकाने केलिए, तो वह सीख क्रर भी हम क्या करने वाले हैन?...