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गुरुवार, 13 अगस्त 2009

निंदिया

आह! क्या सुख है सोने में,
समझते नही लोग कभी इसे।
निंदिया रानी जब उतर आती है,
मानो, जीवन भर का चैन मिलता है।
निद्रा आने की बस देरी है,
मडराने लगते हैं सपने सुंदर।
दुखों को हम यूँ भूल जाते हैं,
मानो, 'दुःख' शब्द का अर्थ ही नही है।
बन जाते हैं हम बच्चे छोटे,
निंदिया रानी के सामने आके।
अपने कोमल कलैओं से,
रोज़ हमें वह दुलराती हैं।
हमारे थके दिलों को दिलासा देती है,
हमारे सभी दुखों को अपनाती है।
काश! जुदाई का सामना न करना पड़े,
कभी इस दुलार-भरी माता से।

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