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गुरुवार, 13 सितंबर 2012

सीख

मैं उन्मुक्त पंछी उडती चली
नीले अम्बर की ऊँचाई छूती चली
काली घटा छाई, ठंडी हवा बही
संग संग  मैं भी चलती रही।
देख आई मैं नज़ारे कई,
कुछ नफरत से भरी,
तो कुछ सुहाने प्यार भरी।
तो कुछ  असीम करुणामई।
देखने को मिली किस्से स्वार्थ की,
तो देखी  कहानी त्याग और सेवा की।
देखी  ज़िन्दगी सुख समृद्दी की,
तो कहीं गरीबी और लाचारी की।
दिल में सवाल अनेक उठी,
कभी सोचने लगी क्या यही है ज़िन्दगी!
फिर भी मैं आज़ाद उडती चली
रास्ते में प्यार मैं बांटती चली।
आखिर यही तो सीख है ज़िन्दगी की -
प्यार दो, आखिर हम सभी हैं भाई - भाई
                                                   -"अपराजिता"
                                                      12.9.12