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गुरुवार, 29 सितंबर 2011

धरती माँ का दुःख

 सुन री! वह चिड़िया चहक रही है,
गगन में घनघोर घटा छाई है |
लगता है मानों शोक मना रही है,
ये धरती माँ प्यारी, किसीकी|
इसीलिए यह समा है इतनी दुखी|
लगता है मानों, अपना दुःख छिपा रही है,
दुःख अपना प्रकट करना चाहती है,
पर गले में आकर अटक जाती है|
उसके गले भर रही हैं,
पर, आँसू निकलते ही नहीं है|
किससे कह सकती अपने दुख की कहानी?
लगता है जैसे शोक मन रही है,
अपने प्यारे साजन से बिछड रही है,
हाय, ये दुःख किसी से कह नहीं पा रहीं,
ये हाल क्यूँ, प्यारी धरती माँ मेरी?
क्या ऐसा कोई नहीं है, जो तुम्हे समझ ले,
और तुम्हें अपने दुःख से छुड़ा लें?
रो ले माँ, रो ले| ताकि हल्का हो जाए मन तेरे|
अपना ग़म तुम्हीं को सहना है माँ,
इसीलिए ज़ोर से रो ले, प्यारी माँ!

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