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शनिवार, 15 अगस्त 2009

मेरे सपनों की दुनिया

मैंने सपने में एक ऐसी दुनिया देखी,
जिसमे न ग़म है, नाम-मात्र के भी,
चारों और हैं बहारों और खुशियाँ ही,
'वैर' शब्द की नाम-निशान ही नहीं।
सब है एक दूसरे के भाई-भाई,
भेद नहीं है जाती-पाँती की।
राम, रहीम, मंजीत, एन्टोनी,
सब हैं मित्र, औ दूसरों का हितकारी।
चारों ओर हैं सिर्फ़ शान्ति ही,
आतंकवादी का नाम भी है नहीं।
एक दूसरे के जीवन की बैसाकी नहीं,
बल्कि हो जाते हैं दिया दिवाली की।
स्त्रियाँ तो है सति-सावित्री,
अपनी हया का सदा ख्याल रखती,
सम्मान के साथ जिंदगी बिताती,
सबके मर्यादा के पात्र बनी रहती।
अगर दुनिया यह मेरी कल्पना की,
मित्य  न होकर, सच्ची होती,
यह दुनिया स्वर्ग बन जाती,
सुख की कविता ही हमेशा निकलती!



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