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गुरुवार, 13 अगस्त 2009

मेरा सनम

किसी परदेशी से मिली अँखियाँ मेरी,
है तो वह ज़रूर एक अजनबी ही।
पर थी करिश्मा उसमे ज़रूर कोई,
की उसके सामने मैं तो हार गई.
अँखियाँ उसकी है जादू से भरी,
मुखड़े में चाँद की रौशनी,
मैं तो हो गयी पर बलिहारी,
करने लगी हर पल इंतज़ार उसकी.
इंतज़ार में खुशी मुझे मिली,
प्रीतम के सपने में खो गयी.
हर पल उसके ख़त की राह देखती,
उसे पाते ही मैं मचल उट्ठी.
हां! इंतज़ार में क्या खुशी थी.
उसका भोला-भोला मुक्कादा मुझे भागी,
मुझे तो बनना है उसके चरणों की दासी.
जिस मनोहर रूप की मैं सपना देखि,
आज इस रूप का मैंने पा ली,
आख़िर नाम भी तो है उसका मनोहर ही,
मैं तो हो गई उसकी प्रेम दीवानी,
करने लगी इंतज़ार सनम से मिलने की.

मैंने इस कविता को ३०-०७-१९९१ में लिखी थी, यानी जब मैं २२ साल की थी.

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